Sunday, March 30, 2014

बेतरतिब …

यहाँ कुछ सिसकतीसी यादें रखी हैं....
मेरी चादर पर पड़ी सिलवटो की तरह…
बेतरतिब……

कुछ सहमे हुए से सपने,
यहाँ वहाँ बिखरे पड़े हैं.....
तकियों से लिपटे हुये....  

कुछ हँसी की फुहारें
दीवारो पर फैली है....
तुम्हारे फेंके हुए
होली के रंगो कि तरह…

और तुम्हारी अल्लड सी,
बेमतलब कि, फिर भी  मीठी बातें,
कोने में दुबकी बैठी हैं..
मेरी ग़ज़लों कि किताबों के
पिछेसे झाँकती हुयी सी…

और वो सारे गीले-शिकवे भी लटके हुए है…
पर्दो कि तरह.…
मेरे जेहन कि खिड़कियों पर…
मुस्कुराते हुये…

अरे.… रहने भी दो… मत सवारों इन्हे…
मैं भी कहा अभी सवरं पाया हु.…    
  

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