Saturday, March 11, 2017

मुसाफिर हो....

मुसाफिर हो... कभी तो जाना ही था तुम्हे... चले जाना...
बस उस दोराहे पर कोई निशानी छोड़ जाना,
गर आओगे कभी इसी पगडंडी पर लौटकर, तो मेरी कब्र कम्स्कम ढूंढ तो सको...
मेरे सिरहाने खोजना, कुछ लिख छोडूंगा तुम्हारे लिए...
ज्यादा नहीं , बस ऐसे ही.. के जब तूम नही थे तो कैसी बीती शाम और कैसे ढली रात, और कैसे मेरे दिन कभी जवां हुए ही नहीं..
बस उगते और डूबते रहे सूरज के साथ...
लम्बी होती परछईयो की तरह...
कुछ रातो के जिक्र हो शायद बारिशो वाली, कुछ मचलते अरमानो को मसलतीसी...
परेशां न होना,यही मैंने तय किया था मेरे लिये जब तुम नही रहोगे कभी...

और जब आ ही जाओगे तो अपना सफरनामा भी सुना देना.. उन रंगीन शामोंके बारे में भी बताना जो तुमने बिताई तुम्हारे मेहबूब के साथ.. और रातो का जिक्र भी कर देना तुम्हारी सुनहरी झुल्फोंमें जो उसने बितायी हो... और हा, तुम्हारी और मेरी शामोंके वक्त अलग अलग हो शायद.. पर मेरी शामें तनहा ही रही, मेरी तरह...

#मोहा

©Amit Mohod

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